Saturday 25 March 2017

ताजमहल की सच्चाई

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बादशाहनामा का विश्लेषण

अर्जुमन्द बानो बेगम या मुमताउल जमानी शाहजहाँ की रानी थी. इसको बादशाहनामा के खण्ड एक के पृष्ठ 402 की अंतिम पंक्ति में भी इसके मुमता-उल-जमानी नाम से ही सम्बोधित किया गया है, न कि मुमताजमहल के नाम से. इतिहासकार इसके जन्म, विवाह एवं मृत्यु की तारीखों पर सहमत नहीं हैं. हमारी कथावस्तु पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः हम इसका जन्म सन्‌ 1593 तथा शाहजहाँ से विवाह सन्‌ 1612 मान लेते हैं.

अप्रतिम सुन्दरी नूरजहाँ मिर्जा ग्यास बेग की पौत्री एवं ख्वाजा अबुल हसन वा यामीनउद्‌दौला आसफखान की पुत्री अर्जुमन्द बानो शाहजहाँ की पटरानी नहीं थी. शाहजहाँ का प्रथम विवाह परशिया के शासक शाह इस्मायल सफवी की प्रपौत्री से हुआ था, जबकि मुमताज से सगाई पहले ही हो चुकी थी.

अर्जुमन्द बानों ने 8 पुत्रों एवं 6 पुत्रियों को जन्म दिया था एवं अपनी चौदहवीं सन्तान को जन्म देते समय इसका देहान्त बरहानपुर में 17 जिल्काद 1040 हिजरी तदनुसार 7 जून सन्‌ 1631 को हुआ था. (बादशाहनामा खण्ड, दो पृष्ट 27). इसको वहीं पर ताप्ती नदी के तट पर दफना दिया गया था. यह कब्र भी उपलब्ध है तथा इसकी देख-रेख लगातार वहाँ के निवासियों द्वारा की जाती है. उनका मानना है कि रानी का शव आज भी कब्र में है अर्थात्‌ न कब्र खोदी गई एवं न शव ही निकाला गया.

इसके विपरीत बादशाहनामा खण्ड एक, पृष्ठ 402 की 21वीं लाइन में लिखा है कि शुक्रवार 17 जमादिल अव्वल को हजरत मुमताज-उल-जमानी का पार्थिव शरीर (बरहानपुर से) भेजा गया जो अकबराबाद (आगरा) में 15 जमाद उल सान्या को आया (बादशाहनामा खण्ड एक पृष्ठ 403 की 12वीं पंक्ति).

शव आगरा लाया अवश्य गया था, परन्तु उसे दफनाया नहीं गया था. शव को मस्जिद के छोर पर स्थित बुर्जी (जिसमें बावली है) के पास बाग में रखा गया था जहाँ पर आज भी चार पत्थरों की बिना छत की दीवारें खड़ी हैं. बादशाहनामा खण्ड एक के पृष्ठ 403 की 13वीं पंक्ति के अनुसार अगले वर्ष (कम से कम 6-7 मास बाद) तथा पंक्ति 14 के अनुसार ‘आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर) शव को दफनाया गया.

बादशाहनामा के उपरोक्त कथनों से एक बात सुस्पष्ट होकर उभरती है कि 15 जमाद उल सानी 1041 हिजरी तदनुसार 8 जनवरी सन्‌ 1632 को जब रानी का पार्थिव शरीर आगरा आया, उस समय उसे दफनाया नहीं गया. क्यों? क्योंकि उसे आकाशचुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर दफनाना था जो शायद तैयार (दफनाने योग्य दशा में) नहीं रही होगी.

किसी शव को दफनाने के लिये किसी भवन की आवश्यकता नहीं होती. शव को उसी दिन अथवा सुविधानुसार 3-4 दिन पश्चात्‌ भूमि में गड्‌डा खोदकर दफना दिया जाता है तथा उसे भर दिया जाता है. उस पर कब्र तथा कब्र के ऊपर रौज़ा या मकबरा कभी भी, कितने भी दिनों बाद तथा कितने ही वर्षों तक बनाया जा सकता है.

शव को अगले वर्ष भवन में दफनाने के वर्णन से स्पष्ट है कि इसी बहाने भवन प्राप्त करने का षड्‌यन्त्र चल रहा था तथा मिर्जा राजा जयसिंह पर जिन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति अत्यन्त मूल्यवान्‌ एवं प्रिय थी, उस भवन को शाहजहाँ को हस्तान्तरित कर देने के लिये जोर डाला जा रहा था या मनाया जा रहा था. अथवा यह भी सम्भव है कि भवन को प्राप्त करने के बाद उसमें शव को दफनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन किये जा रहे थे. शव को आगरा में भवन मिल जाने की आशा में लाया गया था, परन्तु सम्भवतः राजा जयसिंह को मनाने में समय लगने के कारण उसे बाग में रखना पड़ा. यदि शाहजहाँ ने भूमि क्रय कर ताजमहल बनवाया होता तो शव को एक दिन के लिए भी बाग में रखने की आवश्यकता न

शव को मार्ग तय करने में (बरहानपुर से अकबराबाद तक) लगभग 28 दिन लगे थे. पार्थिव शरीर को लाने राजकुमार गये थे. जाने में भी लगभग इतना ही समय लगा होगा. 2-4 दिन बरहानपुर में शव निकालने तथा वापिसी यात्रा की व्यवस्था में लगे होंगे. अर्थात्‌ 2 मास का समय राजकुमार के जाने के बाद लगा था. शव दफ़नाने की योजना इससे पूर्व बन गई होगी.

इतना समय उपलब्ध होने पर भी शव को (असुरक्षित) 6-7 मास तक बाग में रखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि भवन उपलब्ध था तो शव दफनाया क्यों नहीं गया और यदि भवन उपलब्ध नहीं था तो शव लाया क्यों गया? क्या इससे सुस्पष्ट नहीं कि शाहजहाँ को आशा रही होगी कि राजा जयसिंह मना नहीं करेंगे और इसी आशा में राजकुमार को भेज कर शव मँगवा लिया गया, परन्तु जयसिंह ने स्वीकृति नहीं दी. यह भी सम्भव है मिर्जा राजा जयसिंह के मना कर देने पर उन पर दबाव डालने की नीयत से ही शव को लाकर बाग में रख दिया गया हो. शव को दफ़नाने की तारीख न लिखना भी इसी शंका को बल देता है.

शव को बादशाहनामा के अनुसार अगले वर्ष गगनचुम्बी भवन में दफनाया गया. क्या इससे सिद्ध नहीं होता है कि ताजमहल जैसा आज दिखाई देता है उसी में रानी के पार्थिव शरीर को दफ़नाया गया था? अन्यथा क्या कुछ मास में गगनचुम्बी भवन का निर्माण किया जा सकता है, जिसके लिये अनेक लेखकों ने निर्माण काल 8-22 वर्ष तक का (अनुमानित) बताया है? क्या शाहजहाँ के लिये एक वर्ष से कम समय में ताजमहल बनाना सम्भव था? शाहजहाँ ने तो मात्र भवन को साफ करके कब्र बनाई थी एवं कुरान को लिखवाया था. शाहजहाँ ने कभी यह नहीं कहा कि उसने ताजमहल का निर्माण कराया था.

इतने सुस्पष्ट प्रमाणों के बाद भी सम्भव है कुछ पाठकों के मन में परम्परागत भ्रम शेष रह गया हो कि ताजमहल में नीचे वाली भूमितल स्थित कब्र, जिसे वास्तविक कहा जाता है वह भूमि के अन्दर खोद कर बनाई गई है एवं उस कब्र के ऊपर एवं चारों ओर यह विशाल एवं उच्च भवन खड़ा किया गया है वास्तव में तथ्य इसके विपरीत हैं.



जिस समय हम फव्वारों की पंक्तियों के साथ-साथ चलते हुए मुख्य भवन के समीप पहुँचते हैं, वहाँ पर छः सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ही उस स्थल तक पहुँचते हैं जहाँ पर जूते उतारे जाते हैं. अर्थात्‌ हम लोग भूमितल से लगभग 4 फुट ऊपर जूते उतारते हैं. यहाँ से हम 24 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाते हैं और पुनः 4 सीढ़ियां चढ़कर मुख्य भवन में प्रवेश करते हैं.

इन 24+4 अथवा 28 सीढ़ियों के बदले हम केवल 23 सीढ़ियां उतर कर नीचे की कब्र तक पहुँचते हैं. इस प्रकार भूमितल की कब्र जूते उतारने वाले स्थल से भी कम से कम तीन फुट ऊपर है जो ऊपर बताये अनुसार भूमितल से 4 फुट ऊपर था. इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नीचे वाली कब्र भी पृथ्वी से 7 फीट ऊँची है जबकि इसे भूमि खोदकर बनाया जाना चाहिए था.

अगले पाठों में पाठकों को इस सत्य से भी परिचित कराया जायेगा कि इस तथाकथित नीचे वाली वास्तविक कब्र के नीचे भी कमरे आज भी स्थित हैं और जिनमें प्रवेश करने के मार्गों को बलात्‌ बन्द किया हुआ है. लेखक इसे सुनी सुनाई बात के आधार पर नहीं लिख रहा है, अपितु इन कमरों का स्वयं प्रत्यक्षदर्शी है.

अभी कुछ अन्य विज्ञ पाठकों की कुछ शंकाओं का समाधान होना रहा गया है. वे हैं बादशाहनामा की अन्तिम 2 पंक्तियों में आये शब्द (1) नींव रखी गई (2) ज्यामितिज्ञ, एवं (3) चालीस लाख रुपये.

यदि ऐसा होता तो उसे सम्बन्धित अन्य कामों का वर्णन भी होता. किसी काम को भी प्रारम्भ करने को भी मुहावरे में नींव रखना कहते हैं यथा ‘जवाहलाल नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी.’ इसमें भूमि में गड्‌ढा खोदने से कोई तात्पर्य नहीं है, फिर भी यदि कोई इसके शाब्दिक अर्थ अर्थात्‌ खोदने को ही अधिक महत्व देता है तो उनके संतोष के लिये इतना ही पर्याप्त है कि दफनाने के लिये पहले खोदना तो पड़ता ही है चाहे वह छत या फर्श ही क्यों न हो.

रही ज्यामितिज्ञों की बात. ज्यामितिज्ञों की सबसे पहली आवश्यकता कब्र की दिशा निर्धारित करने के लिये ही होती हैं, कब्र हमेशा एक दिशा विशेष में ही बनाई जाती है. इसके अतिरिक्त ताजमहल देखते समय गाइडों ने आपको दिखाया एवं बताया होगा कि कुरान को इस प्रकार लिखा गया है कि कहीं से भी देखिये ऊपर-नीचे के सभी अक्षर बराबर दिखाई देंगे, ऐसा क्योंकर सम्भव हुआ? दूरदर्शी ज्यामितिज्ञों की गणना के आधार पर ही है.

अन्तिम संदेह चालीस लाख रुपयों पर है. यदि शाहजहाँ ने ताजमहल नहीं बनवाया था तो इतनी बड़ी धन राशि का व्यय कैसे हो गया. उस युग में चालीस लाख रुपया बहुत बड़ी राशि थी. बादशाहनामा में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस राशि में कौन-कौन से व्यय सम्मिलित हैं मूलतः शाहजहाँ ने जो व्यय इस सन्दर्भ में किये थे वे इस प्रकार बनते हैं



(1) रानी के शव को बरहानपुर से मंगाना
(2) मार्ग में गरीबों तथा फकीरों को सिक्के बाँटना
(3) भवन के जिन कक्षों में कब्रे हैं उन्हें खाली कराना
(4) शव को दफ़न करना एवं कब्रें बनवाना
(5) भवन के ऊपर-नीचे के सभी कमरों को बन्द कराना
(6) मकराना से संगमरमर पत्थर मंगाना
(7) कुरान लिखाना एवं महरावें ठीक कराना
(8) मजिस्द में फर्श सुधरवाना तथा नमाज़ पढ़ने के लिए आसन बनवाना
(9) बगीचे में सड़क नहर आदि बनवाना
(10) रानी का शव जहाँ रखा गया था वहाँ पर घेरा बनवाना
(11) परिसर के बाहर ऊँचे मिट्‌टी के टीलों को समतल कराना आदि.

पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में यह कहना अति कठिन है कि उन चालीस लाख रुपयों में से उपरोक्त कौन-कौन से कार्य हुए थे. कुछ के अनुसार उक्त सारे कार्यों पर भी चालीस लाख रुपये व्यय नहीं आयेगा. ऊपर इंगित किया जा चुका है कि दरबारी चाटुकार अतिरंजित वर्णन करते थे अर्थात्‌ यदि दो लाख व्यय हुए होंगे तो चालीस लाख बखानेंगे. इस प्रकार मालिक भी प्रसन्न होता था तथा सुनने वाला भी प्रभावित होता था. दूसरा कारण यह भी था कि दो खर्च कर दस बता कर अपना घर भी सरलता से जरा भरा जा सकता था.

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